Monday, December 31, 2012

जनवरी की वो पहली सुबह

कल ही तो था जब लोगों से बचते बचाते हमारी नजरें टकराई थी। जनवरी की पहली सुबह थी वो जब आँखों से मैंने कुछ कहा था तुझे। तू भी कहाँ कम थी। एक बार तो शर्म से आँखें झुकी थी पर फिर से पलकें यूँ उठी मानो मेरे प्यार के current के लिए उन आँखों में कोई resistance ही न हों। तेरी आँखों की हौसला अफजाई से हिम्मत बढ़ी थी मेरी। पर गणित की probability चाहे जितना भी साथ दे लें पर आँखों के प्यार को होंठों तक लाने में सब की फटती है। मेरी भी फटी थी। लुकाछिपी का यह खेल महीने भर चलता रहा पर बात पहले पड़ाव से आगे न बढ़ सका। जनवरी की सर्दी में ठिठुरता कंपकपाता मेरा प्यार तेरे यादों की रजाई ओढ़े खुद में ही सिमटा रहा।
आहिस्ता आहिस्ता दिन बीतते गये और फ़रवरी मार्च का महीना आ गया।
मौसम खिल चुका था। हमारा स्कूल शहर से काफी दूर था। यहाँ मौसम और भी रूमानी लगता। हवा में आम के मँजर की भीनी भीनी खुशबू फ़ैल रही थी। मेरा प्यार दिन-ब-दिन जवान हो रहा था। आँखें जाने अनजाने गुस्ताखियाँ कर बैठती थीं। मेरी बदमाशियों से  तेरा चेहरा खिल सा जाता था। कसम से कहता हूँ- आज भी कॉलेज में मिले इक्के दुक्के A grade से भी उतनी ख़ुशी नही मिलती है जितनी तेरे एक smile से मिलती थी।

मुझे याद है अप्रैल का वो महीना। आने वाले exam ने हवा का temperature बढा सा दिया था। Maths कि क्लास में sir ने आपका एक सवाल मेरी ओर लुढका दिया। R D SHARMA और R S AGGARWAL से रटे  हुए सारे theorems की कसम खा कर मैं कहता हूँ -ऐसा कुछ भी नही था कि मैं वो सवाल नही कर सकूँ। पर पता नही क्यूँ सवाल सुलझाने की चाहे जितनी भी कोशिश मैं करता मैं उतना ही उलझ सा जाता था। Practically speaking- वो सवाल थी या तेरी उलझी लटें ये मैं समझ ही नही पा  रहा था। 
"तुम मेरे पास थीऔर सवाल मेरे सामने "
तू भी एक अनसुलझी पहेली थी मेरे लिए। मन ही मन मैं तुम्हे impress करने की सौ जुगत भिड़ा रहा था। पर सच कहता हूँ एक भी जुगाड़ फिट नही बैठ रहा था। मैं आज भी यह सोच कर disappoint हो जाता हूँ कि आज कल हर आँडू- पांडू और झंडू आदमी के पास मिल जाने वाला AXE का यह DEO उस समय उतना famous क्यूँ नही था। 

खैर maths के क्लास में हुई उस बेइज्जती को मैं अपना एक बड़ा achievement मानता हूँ। Occasion चाहे जो भी रहा हो पर तुम आधे घंटे तक मेरे सामने  मुझसे डेढ़ फिट की  दूरी पर बैठी रही। मैं सवाल में कम और तुझमे ज्यादा ही उलझा हुआ था। उस दिन ही मैंने बड़े गौर से देखा था तुझे। तेरे होंठ के दाहिने करवट में एक छोटा सा तिल है। 
इम्तेहान के मौसम बीत गए। गर्मी की छुट्टी में जलती दोपहरी में आम के बगीचे में कोयलें कूका करती थीं। मैं बेचैन सा हो गया था। दोस्त से एक सेकंड हैण्ड वॉकमेन खरीद ली। सच कहता हूँ अल्ताफ रजा के गानों से दिल में एक टीस सी उठती थी।
 शेरो-शायरी का एक दौर चल पड़ा था। तेरी यादों में लिखे हर टूटे-फूटे नज्म को आज भी डायरी में  सहेज कर रखा है मैंने। 
फिर उसके बाद तो कई सावन आए और गए। पतझड़ और बसंत का आना जाना लगा रहा। जनवरी की पहली सुबह भी देखने को मिली पर वो प्यारी सी सुबह फिर नही मिली

वैसे तो life में fuck और shit होते रहते हैं। पर देखो ना जिन्दगी कितनी बदल गयी है। Lovestory के दूसरे ही paragraph में तेरे प्यार को grade की तराजू में तौल दिया था मैंने। ऐसी गुस्ताखी मैं अक्सर ही करता रहता हूँ। 
पर एक बात बड़ी वफ़ा के साथ कह सकता हूँ। 8th क्लास में ही स्कूल के health register से तेरी एक फोटो चुराई थी मैंने। अब भी purse के एक कोने में बड़े सलीके से तेरी वो फोटो रखता हूँ मैं। 8 साल पुरानी black and white फोटो थोड़ी धुंधली पड़ गयी है। पर तेरे आँखों की चमक अब भी बरकरार है। मेरी आँखें आज भी गुस्ताखियाँ करती हैं और तू आज भी मुस्कुराती है। आज भी कंपकपाती ठंड में तेरी यादें चाय की चुस्की सी फुर्ती पैदा करती हैं ।
 
(P.S: उसी पर्स में कई बार माँ- बाबू जी की फोटो भी रखी थी मैंने। पर इक्के दुक्के सिम-कार्ड के लिए जब तब वो फोटो कुर्बान होता रहा। एक अच्छी बात ये है की तेरे VOTER  ID CARD का Xerox नही है मेरे पास :) )
      

Monday, November 26, 2012

डायरी के पन्नों से....



                                                    

शाम के पाँच बजे जब आँख खुली तो लड़के ने ख़ुद  को अकेला ही पाया। सूरज  की अंतिम किरणे खिड़की के कोने से झाँक रही हैं । कमरे  के एक कोने में माँ बाबू जी की तस्वीर लटक रही हैं , जिस पर  धूल की परतें तह बनाये हुए हैं । मेज पर किताबें बिखरी पड़ी हैं ।  खुली हुई डायरी के कुछ पन्ने पंखे की हवा में बार बार पलट जा रहे हैं , मानो वर्तमान के नीरस क्षणों को पीछे खींचना चाहते हों। रात भर लड़के ने खुद में जिन्दगी खींचने की असफल सी कोशिश की पर पता नहीं कब आँख लग गयी। सिगरेट का अधजला  टुकड़ा अब भी मेज के किनारे पड़ा हुआ था,,,, बुझा हुआ सा - बिल्कुल शांत,,,,,, मानो उस टुकड़े की जिन्दगी भी लड़के की जिन्दगी से जुड़ा हुआ हो।
 सर अब भी दर्द से चक्कर खा रहा है। 
डायरी के पन्नों ने आखिरकार लड़के को खींच ही लिया अपनी तरफ। उँगलियों ने पन्ने पलटने शुरू किये- धीरे धीरे व्यस्क आँखों का वो भोलापन लौटता गया। उंगलियाँ मासूम होती गईं  और बचपन की निश्छल हंसी वातावरण में फिर से गूंजने लगी। 

"कल शाम मैं और बाबू जी आम के बगीचे में बैठे हुए थे। हमेशा की तरह बाबू जी ने ढेर सारे पके आम सामने रख दिए। मैं सब कुछ भूल आमों के पीछे पड़ गया। आम की मिठास और बाबू जी का प्यार अपना एक अलग ही धुन तैयार करते थे। मैं उन मिठास में खो सा जाता था, उस गोद में खुद को भूल जाता था। आम खाते-खाते मैंने अचानक से चेहरा ऊपर उठाया। मेरी आँखों से खिन्नता साफ़ झलक रही थी। मैंने आधे खाये हुए आम बगल में सरका दिये और दूर जाकर उंगलियाँ साफ़ कर वहीँ बैठ गया।बचपन से ही बाबू जी में एक आदत मैंने देखी थी। मुझे खुश करने के बाद खुद को बीड़ी की कशों से खुश करते थे। यूँ तो बाबू जी की वजह से धुंए के उन छल्लों में भी एक अपनापन सा दिखता था पर बाल मन उस महक को बर्दाश्त नहीं कर पाता था।  बाबू जी मेरे मन को पढना जानते थे। मेरी स्थिति भांप कर बीड़ी के अधजले टुकड़े को फेंक दिया। फिर बगीचे के कोने वाले चिनिया आम से चार पांच पके आम तोड़ लाये। मुझे गोद में ले कर सारा आम मुझे दे दिया। फिर आँखों में आँखें डाल एक प्रश्न दाग दिया- मेरी बीड़ी की महक बहुत बुरी लगती है? 7 साल के उस बालक ने आँखों में अतिरेक मासूमियत भरते हुए हाँ में सर हिलाया। बाबू जी ने मुझे गले से लगा लिया और धीरे से मेरी कानों में आकर कह दिया " आज से बीड़ी से तौबा, कसम जो हाथ भी लगायी आज के बाद "। मेरे चेहरे पर मुस्कराहट तैर रही थी। गोद की पकड़ और मजबूत होती जा रही थी। मानो बिना बोले ही सारा प्यार उड़ेल देना चाहते हों।"

शाम का वो एहसास लड़के की जेहन में लौट रहा था। परत दर परत जिन्दगी के सारे पन्ने आँखों के सामने से गुजर रहे थे।
जिन्दगी ने बड़ा ही  अजीब मोड़ ले लिया। आँखों की नादानी और चेहरे की वो सच्चाई पता नही कब धुंधली पड़ गई । आम की मिठास और प्यार की गर्मी बहुत पीछे छूट गया। उम्र के पेड़ से मासूमियत के पत्ते किस पतझड़ में गिर गए पता ही नही चला। हम बढ़ते रह गए, सब कुछ  बदल गया। 
पर बचपन अब भी दूर कोने में बैठा ललचाता है। मानो ये एहसास दिलाता है की एक बच्चा है तुम्हारे अन्दर जो अब भी जिन्दा है- उसे मत मरने दो। सपनो के बोझ से पलकें भारी मत करो, कुछ मासूमियत बह जाने दो। वर्षों से जमी बर्फ पिघल जाने दो कभी कभी। 

लड़का उठता है, अकेला ही  चल पड़ता है कॉलेज की दूसरी छोड़ की तरफ। पाँव कभी कभी लड़खड़ाते हैं जैसे रात का हैंगओवर नही उतरा हो अब तक। तारे आसमान पर आ चुके हैं। पूरब से हवा का एक झोंका छू कर निकल जाता है। लड़का कुछ देर यूँ ही खुली हवा में सांस लेने की कोशिश करता है। पर पता नही क्यूँ एक बेचैनी सी महसूस होती है। दूर दूर तक कोई साथी नजर नही आता। 
          कदम फिर से पीछे मुड़  पड़ते हैं। जेब से पाँच का एक नोट और एक रूपये का एक सिक्का निकलता है। जिन्दगी फिर से जल चुकी है और एक एक कश के साथ जिन्दगी खुद में फूंकने की कोशिश शुरू हो चुकी है। धुंए के छल्लों में अब और भी अपनापन दिखने लगा है।




Monday, October 29, 2012

आम आदमी और आम चुनाव


                                                      


कहानी आज से  कुछ  पुरानी है पर हालात  अब भी कमोबेश वही है |

आज कलुआ बहुत खुश है | हरसन को वो समझा रहा है "याद है हरसन ५ साल पहले कितने छोटे थे हम, जब यहाँ  हेलीकाप्टर आया था  "
"हाँ याद है, सबसे पीछे थे हम और ठीक से देख भी नहीं पाए थे, 
और नाश्ता का पैकेट तो अगली पंक्ति में ही समाप्त हो गया था | पर इस बार हम सबसे आगे होंगे |
हम भी बड़े हो चुके हैं |"

आज क़लुआ और हरसन स्कूल को चले तो थे पर वहां न जाने का पूरा मन बना लिया था | ५ साल पूरे हो चुके हैं पिछले चुनाव के और एक बार फिर समय आ चुका है की हमारे नेता हमारे घर तक आयेंगे | आज कलुआ और हरसन की आँखों में एक  अलग ही चमक थी | आज उन्हें फिर से  शहरी उड़न - तस्तरी को देखने का मौका मिलेगा | चुनाव और वोट के मायने उन्हें नही मालूम थे, पर वो ये जान चुके थे की ५ सालों में १ बार उन्हें उस सुन्दर उड़न-परी के दर्शन उन्हें जरूर होंगे |

विस्मित आँखें आसमान टटोल रही हैं | दूर लगे पंडाल के पास उन्हें जाने की हिम्मत नहीं होती | खाकी वर्दी वाले उनकी पहरेदारी में पहले से ही हैं | पंडाल के पीछे खान पकवान का भी बंदोबस्त है | गुलाब जामुन की महक उनके शरीर में फैली जा रही है | इन्द्रियों की विवशता ने मस्तिष्क को सुझाव भेजने शुरू कर दिए थे | अगले ही पल हरसन बोल पड़ा "अरे कलुआ चल ना पीछे की तरफ से चलते हैं " | हरसन का सुझाव सुन कर कलुआ जमीन से ढाई फीट ऊपर उछल गया | 

वो दोनों अब पंडाल के पीछे से मौका ताड़ रहे थे | आज उनकी स्थिति बड़ी अजीब थी | सामने कुछ कुत्ते भी मंडरा रहे थे | आज उन्हें भी चूसी हुई हड्डियों और जूठे मछलियों की दावत मिलने वाली थी | दोनों की आँखों में बराबर चमक है | मानव के पूर्वज बन्दर थे, यहाँ आँखों की चमक ये सिद्ध कर रही थी की बंदरों के पूर्वज कुत्ते थे | नर और वानर के बाहरी आकार प्रकार बेहद मिलते हैं , पर आज मानवों की मानसिकता कुत्तों से काफी मिलती नजर आ रही थी | काफी देर तक अवलोकन के बाद ये नर- पशु समुच्य  इस निष्कर्ष पर पंहुचे की ये जगह उच्च कोटि के पशुओं के दावत के लिए है |  उनका वहां पहुंचना बड़ा मुश्किल जान पड़ता था | 
तभी गर्र-गर्र की आवाज से आसमान गूंजने लगा | दूर आसमान में वो उड़न -परी मंडरा रही थी | कलुआ और हरसन सब भूल कर एकटक आसमान में देखने लगे | कुछ पल के लिए  पशु वर्ग भी अपनी प्राथमिक  जरूरत भूल कर आसमान निहारने लगे | आस पास के दो - तीन कोस तक के लोग उन्हें देख रहे होंगे | 

दूर खेतों में कलुआ के माँ और बापू धान बो रहे हैं | 
"अरे सुनते हो कलुआ के बापू .... ऊपर देखो ऊपर ... हेलीकाप्टर जा रहा है | "
हाँ बापू  कितना सुन्दर है - कीचड़ में सनी हुई रनियां भी ताली मारते हुए चिल्लाने लगी | रनियां कलुआ की छोटी बहन है |
" अरे काम पर ध्यान दो कलुआ की माई | वो अपना पेट भरने में मगन हैं, तू भी अपने पेट की चिंता कर" | वो प्रौढ़ आँखें दो पल के लिए ऊपर उठी और फिर बड़े ध्यान से बोआई में जुट गयी | 

कलुआ के बापू  के लिए ये बातें कोई मायने नहीं रखती हैं | वर्षों से चले आ रहे परंपरा को वो शायद अच्छी तरह से जानता है | वो गरीब है पर स्वाभिमानी है | वो जानता है की आसमान सिर्फ उड़ने वाले जीवों के लिए है | उन जैसे सत्तर करोड़ लोगों की जगह यही कीचड़ है | कीचड़ में धंसे पैर को वह बाहर निकालने की कोशिश तो  करता है पर वह जानता है की अगला कदम उसे फिर कीचड़ में ही  डालना है | अभी तो सूरज चढ़ा ही है  | उसे शाम तक काम करना है | ये बीज कोई मंगनी थोड़ी ना आयी थी | जोड़े भर बैल गिरवी रखने पड़े थे तब जा कर आया था बीज का पैसा | बिना बैल के किसान तो अपंग ही हो जाये | बैल खोलते हुए कलुआ के माई की रोती हुई सूरत अब भी उसे याद है | उसके हाथों की गति और तेज हो गयी थी | "वो इस बार ज्यादा मेहनत करेगा, खूब सारे धान होने पर वो गिरवी के बैल वापस लायेगा | कलुआ के माई को खुश देख कर वो भी मुस्करायेगा "|  मस्तिष्क में सपने बुनते हुए हाथें लगातार अपने काम में जुटी हैं | भूख प्यास की उसे खबर नही है | वो खुश है अपने सपनों में | 

दूर कहीं हेलिकॉप्टर उतरा था | नेता बाबू उतरने वाले थे | वातावरण में धूल और पत्ते सने हुए थे | लोगों की भीड़ भागी चली आ रही थी | वो भीड़ जिन्हें इन बड़े बाबुओं और भाषणों से कोई मतलब नही था | वो तो देखने आये थे तो बस वो उड़न खटोला | वो उसे देखना चाहते थे, छूना चाहते थे , सपनों की दुनियां में बातें करें तो वो उसमे उड़ना भी चाहते थे |
भीड़ बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थी | इस भाग-दौड़ में क्या बूढ़े, क्या नौजवान और क्या बच्चे ! सबकी एक ही चाहत- हर कोई पहले पहुंचना चाहता था उसके करीब | 

इसी भाग-दौड़ में कलुआ का पाँव किसी गढ्ढे में  पड़ गया |
"आह रे माई मर गए- हरसन रुको " .....कोलाहल के बीच कलुआ की दर्द भरी आवाज गूंजी | पर हरसन के अलावा उसे कोई न सुन सका, मानवों का वास्तविक चेहरा अभी साफ दिख रहा था | निष्ठ्ठुर, निर्लज्ज - बिल्कुल मगन अपनी खुशियों के लिए | हरसन वापस आ चुका था | उसे कलुआ की फिकर थी |
हरसन ने कलुआ को दोनों हाथों से उठाने की कोशिश की पर कलुआ चलने की हालत में नहीं था | चेहरा पूरा लाल था | असहनीय दर्द से वो बिलबिला रहा था | आँखों से आँसू तो रुकने का नाम ही नही ले रहे  थे | हरसन भी घबराहट में कलुआ को पकड़ कर रोने लगा | हरसन की अश्रुपूर्ण आँखें हर तरफ सहायता के लिए चीख रही थी | 
 भीड़ से किसी का ध्यान उनकी ओर गया | अब कुछ लोग इकठ्ठे हो गये थे |
" शायद हड्डी टूट गयी है "- किसी ने अंदाजा लगाया | अंदाजा सही था | कलुआ का पाँव अब तक पूए  की तरह  फुल चुका था | उसके आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा था | हेलिकॉप्टर की आवाज और गुलाब जामुन की खुशबू अब उसके लिए महत्वहीन थे | उसे भी याद आ रहा था अपने माई का वो रोता हुआ चेहरा | इलाज का खर्चा कहाँ से आएगा इस बात की चिंता उसे भी सता रही थी | अब यह दर्द पाँव के दर्द से कहीं अधिक असहनीय था | वो यूँ ही बेहोशी की हालत में हरसन की गोद में पड़ा कुछ बड़बड़ा  रहा था | 

दूर नेता बाबू भाषण दे रहे थे | अगले पांच साल के लिए योजनाओं  का पहाड़ खड़ा किया जा रहा था | एक पंक्ति साफ सुनाई दे रही थी - "बहनों एवं भाइयों मैं आपका दर्द समझ सकता हूँ " | पता नही कितने लोग अभी कलुआ के दर्द को समझ पा रहे थे |




Friday, October 5, 2012

कुछ बात अभी भी बाँकी है


                                              "ढह गया वह तो जुटा कर ईट पत्थर कंकरों को 
                                                          एक अपनी शांति कि कुटिया बनाना कब मना है
                                                          है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है " 
                                                                                                       हरिवंश राय बच्चन 


  
                                                                                                                                        
                                                                                                                        




देश कि वर्तमान राजनैतिक स्थितियों से आहत और निराश जन्मान्यों को समर्पित अपनी कुछ पंक्तियाँ  !!!!


                                                               कुछ बात अभी भी बाँकी है 

कुछ बात अभी भी बाँकी है..... शुरुआत  अभी  भी बाँकी  है... 
टूटे शब्दों में कहो न ये कि  रात अभी भी बाँकी  है

बिक गए ख़ाक के मोल कई  ईमान यहाँ दुकानों  में, 
अपनी ही माँ के रक्त भरे, पी गए यहाँ   पैमानों में 
पर अपनी पौरुश्ता भूल चुके,  भटके  ओ उद्दंड  पुरुष... आ तुझको ये बतला दूँ कि 
सिक्कों में न तौल सको, वो जात अभी भी बाकी है

क्या हुआ कि कल कुछ बिगड़ गया ?
अपना घर भी कुछ उजड़ गया  
 पलकों में बांधे कुछ सपने थे ....
 उन में एक-आध बिछड़ गया 
कुछ कायरता के पुतलों से 
अपना भी पाला पड़ गया .... 
पर पौआ पिए डगमग डगमग चलते ओ उद्दंड पुरुष.... आ तुझको  ये बतला दूँ कि
 चरणों  में शीश चढ़ा दे जो , वो  जज्बात अभी भी बाकी है 

कुछ उनकी चालाकी थी, कुछ मेरी भी नादानी थी 
जो फँसे थे उन बातों में वो बात बड़ी बेमानी थी 
फिर मिलना है कल उनसे कि 
कुछ सवालात अभी भी बाकी है
मेरी मानो ओ उद्दंड पुरुष 
मानवता के अखाड़ों में, दो दो हाथ अभी भी बाकी है  

पर मत कहना मुझसे ये कि रात अभी भी बाकी है....
 मैं कहता तुझसे ओ उद्दंड पुरुष कि....
 मुरझाई पलकों में, विश्वास अभी भी बाकी है 
उलटी धारा खेने वाले कुछ युवकों का साथ अभी भी बाकी है 
मत हो निराश ओ भटके ज्ञानी. 
 यह कालिमा कुछ  पल का है, प्रभात अभी भी बाकी है .... 









                                            

Thursday, August 2, 2012

विजय प्रहर


                    विजय प्रहर 

है घोर अंधकारमय ये रात्रि का पहर- ठहर !!!!
न डर कभी, संभल अभी, बस दो पहर की बात है,
यूँ घोर चीत्कार छोड़, तू उठ जरा 
तू दंभ कर, तू सर उठा और बढ़ जरा, 
कदम उठा....
निडर डगर पकर अभी, कफ़न सजा और बढ़ अभी

निस्तब्ध रात्रि सामने है, दे इसे चुनौती अब ,
न छोड़ तू ये रण अभी, कर घोर संग्राम तू 
तू लड़, संभल, विवश न हो, तू कर विवश इस रात्रि को,
की दूर हट, तिमिर हटा, तू आने दे प्रकाश को 
ये दो पहर की बात थी, वो वक़्त ख़त्म हो चुका

अब रात्रि का समां हटा, और जिन्दगी की लौ जला 
कर विजय प्रहर शुरू अभी, तिलक लगा.... ख़ुशी मना
था मौत का भी सामना, पर जिन्दगी तेरे साथ थी,
वो दो पहर की बात थी, गुजर गयी वो रात थी |


Wednesday, March 28, 2012

मैं कौन हूँ ?

             
मैं कौन हूँ ?
साड़ी में लिपटी, खुद में सिमटी
हज़ारों सवाल खुद में समेटे ,
क्या सिर्फ एक शब्द हूँ?
या...
वर्षों से तुझे अपने खून पर पालने वाली         
अपने माथे पर तुझे सँभालने वाली
मैं जननी हूँ ...
या..
तेरी सेविका हूँ, दासी हूँ, साथी, सहचर या अर्धांगिनी हूँ...
या दहेज़ की आग में जलने वाली कोमल सुशिल महज एक कन्या हूँ ?
मैं ही बहन हूँ, बेटी हूँ....
मैं वीणा हूँ, मैं संगीत हूँ...
मैं एक नदी हूँ, मर्यादाओं की बांध में बंधी
परम्पराओं की बेरियों में जकड़ी, मैं बेबस हूँ
इन सब से अलग मैं कुछ और भी हूँ
मैं प्यास हूँ, मैं जरूरत हूँ
मैं बिकाऊ हूँ... जब कुछ भी नही तो महज एक सामान हूँ
मैं पीड़ित हूँ! मैं अभिशप्त हूँ!

इस छोड़ से उस छोड़ तक
सागर के मंथन में
खुशियों के आँगन में
तेरे साथ वनवास में
दुखों के दलदल में
हमेशा तो रही हूँ तेरे साथ... फिर भी मैं क्यूँ अभिशप्त हूँ?

ये आज की व्यथा नही है
निर्लज्ज सभा में मैं ही  क्यूँ लुटू?
कौड़ी के भाव मैं ही  क्यूँ बिकुं?
आज तो  कृष्ण भी नही हैं... फिर किसकी गुहार करूँ मैं?
युगों तक पथ्थरों में क्यूँ बन्धुं मैं?
दहेज़ की आग में क्यूँ जलूं  मैं?
पूरी जिन्दगी अपने ही घर में क्यूँ न रहूँ मैं?
ये रस्मों रिवाज कब तक सहूँ मैं?
तेरी पौरुश्ता की निशानी लिए कहाँ कहाँ गिरुं मैं?
तुझे मर्यादा पुरुषोत्तम कैसे कहूँ मैं?
पुरुषों में उत्तम राम ही जब नासमझ हों.... तो यह प्रश्न  किस से करूँ मैं?




Sunday, March 4, 2012

भूली बिसरी यादें जिन्हें याद कर मैं आज भी मुस्कराता हूँ :)

बचपन से ही मैं गणित में कमजोर और  मटरगस्ती में आगे रहा हूँ | यादों के बंडल को  जब खंगालता हूँ तो  कुछ बातें जस के तस मानसिक पटल पर आ जाते हैं |
"पड़ोस के मुखिया जी के यहाँ शरीफा का पेड़ था | मैं और बबलू हर रोज ललचाई नजरों से उसे देखते, पके हुए शरीफे हलके पीले रंग के मानो अमृत फल हों| उस दोपहरी मौका पा कर हमने हमला बोल दिया | जेठ की जालिम दोपहरी में अक्सर लोग दनान में या पेड़ के नीचे ऊँघ रहे थे| बबलू के कंधे पर बैठ कर हमने नीचे की डाली पकड़ ली, और फिर पेट के बल डाली के ऊपर | एक पका हुआ शरीफा थोड़ी दूर लटका हुआ था, उसे पाने के लिए एक पतली डाली पर चढ़ता हुआ धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा | लगभग पांच इंच की दूरी पर लटके शरीफे को पकड़ने के लिए ज्यों ही थोडा सा जोर लगाया की अगले ही पल मैं शरीफा और वो खोखली डाली एक साथ
धराम से जमीन पर आ गिरे | अन्दर से मुखिया जी की कड़क आवाज कानों से टकराई- हम बेतहाशा भागे | पिछवाड़े की गली से जब भाग रहे थे तो  कूड़े करकट की ढेर में पड़ा एक शीशा पैर में चुभ  गया | भागते- भागते मुझे चुभन का एहसास हुआ| पैर खून से भीग चूका था| खून देख कर मैं भी डर गया और फफकने लगा| बबलू थोडा हिम्मती था, मुझे जोर से गला लगाते हुए कहता है तुम चिंता मत करो "मेरे पास दवा है"| अश्रुपूर्ण आँखों से जब मैंने दवा की मांग की तो उसने पहले मुझे शांत किया फिर वैद्य जी वाले वाले विश्वास के साथ उसने मुझे नुस्खा बताया  "इस पर पेशाब कर दो खून बहना बंद हो जायेगा और दर्द भी कम हो जायेगा" | मैंने भी वैद्य जी की बात मान ली| आज भी मैं उसकी दोस्ती और उस पेशाब दोनों  की गर्माहट महसूस कर सकता हूँ | कुछ ही देर में वो आंसू  मीठे शरीफे के आगे फीके पर गये थे | ओ दोस्ती और वो चोरी अब भी याद है | "
     इसी तरह की दो और  घटनाये याद आती है |
           बगल के सोनू चाचा हमारे मास्टर हुआ करते थे | दो अंको के  गुना वाले दस सवाल उन्होंने दिए थे | मैं भी बड़ा बहादुर निकला - दस के दसो सवाल गलत! सोनू चाचा ने कॉपी के साथ मुझे घर भेज दिया, बाबू जी के पास! यह तीसरी बार था जब मुझे भगाया गया था | बाबू जी के लिए इस बार असहनीय था- मुझे सजा सुनाई गयी -एक सौ उठक बैठक की | बाबू जी डंडा और जबरदस्ती का गुस्सा लिए सामने खड़े थे| पचास पहुँचते पहुँचते मैं हार मानने लगा था | "चेहरा एकदम लाल, आँखों से आंसू रुकने का नाम नही ले रहा था, दबी आवाज में मैं सिसक रहा था | हर एक गिनती के साथ जब मैं बैठता तो उठने का दिल नही करता था| पर बाबू जी सामने थे- एक हाथ में डंडा और दुसरे में कॉपी लिए | खुस्किस्मती से माँ किसी काम से दलान में आयी | मेरी हालत देखते ही सब समझ गयी | दौर कर मुझे गले लगाया, वहीँ गोद में बिठा कर आँचल से पसीना पोछने लगी | मैं जोर से माँ से चिपट गया, अब मैं जोर जोर से रो रहा था | अब बारी बाबू जी की थी | मेरी माँ - एक निडर, जबान की तेज, गाँव की एक अख्खड़ महिला, नारियल की तरह अन्दर से एकदम मुलायम | बाबू जी पर भड़क पड़ी- "खुद कौन से बैरिस्टर हैं जो बच्चों पर रौब जमाये फिरते हैं , वैसे ही कमजोर है मेरा बच्चा मारने पर तुले हैं "| मेरे बाबू जी खड़े थे -नारी शक्ति के सामने मूक और बेबस ! माँ की हथेली की गर्माहट मैं कैसे भूल सकता हूँ !
            महीने बीत गये और स्कूल की हिंदी निबंध प्रतियोगिता में मैं जब प्रथम आया तो सोनू चाचा ने मुझे एक चवन्नी इनाम में दिया | घर आ कर वो चवन्नी बाबू जी को दिखाया | मेरी सफलता से बाबू जी बहुत  खुश हुए | जेब टटोल कर  एक अट्ठन्नी निकाली और मुझे थमाते हुए कहा "वो चव्व्न्नी जिसके तुम हक़दार हो और ये अट्ठन्नी जो मैं अपने प्यार और प्रोत्साहन के रूप में तुम्हे दे रहा हूँ" | ये कहते हुए उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और गले से लगा लिया | मुझे लगा मैंने गोल्ड मेडल जीत लिया हो, मुझे अब भी याद है |  उस बारह आने में ही मैंने पूरा जहाँ पा लिया था | चार आने की इमली की खट्टी गोली, चार आने का दस लेमन चूस और चार आने का मलाई बरफ | मेरी और बबलू की बड़ी वाली पार्टी थी उस दिन | हम खुश थे |
       अब भी भागते हुए जिन्दगी में जब पीछे मुर कर देखता हूँ तो वो सारी चीजें वापस खींचती है | जब भी चोट लगती है तो आँखों में आंसू ढूंढता हूँ | मैं रोना चाहता हूँ पर रो नहीं पाता | दर्द के पल में वैसे अजीब नुस्खे कहाँ कोई सुझाता है | बबलू की बहुत याद आती है उन पलों में | कभी कभी माँ से चिपटने का दिल  करता है पर कहाँ मिल पाता हूँ | नरम हथेली और भीगे आँचल की बहुत याद आती है | बाबू जी अब डंडे नही लगाते पर भटके हुए राह पर जब चलता हूँ तो बाबू जी के डंडे की बहुत याद आती है | उस मीठे दर्द को फिर से महसूस करना चाहता हूँ | कई बार जीतने का मौका मिला है पर बाबू जी के अट्ठन्नी को बहुत  मिस करता हूँ | भागते दौरते इस जवानी में मैं अपना बचपन फिर से पाना चाहता हूँ - मैं एक बार फिर जीना चाहता हूँ |








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