विजय प्रहर
न डर कभी, संभल अभी, बस दो पहर की बात है,
यूँ घोर चीत्कार छोड़, तू उठ जरा
तू दंभ कर, तू सर उठा और बढ़ जरा,
कदम उठा....
निडर डगर पकर अभी, कफ़न सजा और बढ़ अभी
निस्तब्ध रात्रि सामने है, दे इसे चुनौती अब ,
न छोड़ तू ये रण अभी, कर घोर संग्राम तू
तू लड़, संभल, विवश न हो, तू कर विवश इस रात्रि को,
की दूर हट, तिमिर हटा, तू आने दे प्रकाश को
ये दो पहर की बात थी, वो वक़्त ख़त्म हो चुका
अब रात्रि का समां हटा, और जिन्दगी की लौ जला
कर विजय प्रहर शुरू अभी, तिलक लगा.... ख़ुशी मना
था मौत का भी सामना, पर जिन्दगी तेरे साथ थी,
वो दो पहर की बात थी, गुजर गयी वो रात थी |