Saturday, August 10, 2013

"बकैती"

बकैती जो एक मजा है
बुध्धिजिवियो के लिए एक सजा है
हम जैसो के जीने की वजह है
"बकैती" जिसमे छुपा कहीं मेरा एक बचपन है
जवानी का पागलपन है, बुढ़ापे का सठियापन है

बकैती जीवन के सूनेपन में एक संगीत है
यह धुन है, सुकून है, साज है, हँसी का राज है
यह हँसी है, दर्द है, तड़प है
आँसू की एक नदी है
जो सरस्वती सा चुपचाप अंतर्मन में बहती है

यह छलावा है, दिखावा है, नाटक है, ड्रामा है
रंगमंच पर दांत निपोड़े खड़ा एक पात्र है
यह झूठ है, और इंसान का एक सच भी

intellectuals के फ़लसफो से जब मन थक जाता है
शरीर में एक तपन सा, बुख़ार सा होता है
"बकैती" माँ के हाथ के काढ़े सा असर करती है

बकैती
हाँ वही बकैती, जिसमे हल्दी है,तुलसी है
कड़वापन है, बेवकूफ़ी का दो चुटकी नमक है
सच्चाई की दो छोटी काली मिर्च है
लड़कपन का एक टुकड़ा अदरक भी है

इसमें सच्चाई है पर अच्छाई नहीं है
"बकैती जो एक इलाज है और एक बिमारी भी"

Wednesday, July 24, 2013

बाबू जी के फटे जूते

                                           

कल शाम दोस्तों के बीच नये जूते खरीदने की बात हो रही थी तो फटे जूतों का वह जोड़ा साहसा मस्तिष्क-पटल पर छा गया । 

बाबू जी और फटे जूते के रिश्तों में जब कभी भी दरारें बढ़ जाती तो बूढ़े नीम की छाँव में रोज बैठने वाला "हरसू चमार " उसे रेशम के धागों और महीन कीलों से ठोक पीट कर मजबूत कर देता। हरसू अपनी इस कारीगरी के बदले कभी एक चवन्नी भी नही लेता। बदले में शाम को बाबू जी के साथ चिलम पीया करता। बीड़ी और चिलम की एक-एक कश उन तमाम बुद्धिजीवों को मुह चिढाता था जो घंटों साँस खपा कर Secularism और Communalism पर बहस करते। पाँच दस मिनट के उस चिलम बैठक में ही बाबू जी जात-पात, ऊँच-नीच आदि के बंधनों को जला कर खुद में फूँक लेते थे। 
इन सब के बीच वह फटा जूता मुँह फाड़े सब कुछ देख रहा होता। वह शायद इसी उधेड़ बून में रहता होगा की सुबह ठाकुर जी के मंदिर में हवन के समय मालिक ने उसे उतार क्यूँ दिया था। क्या लकड़ियों का हवन इंसानों के हवन से ज्यादा महत्वपूर्ण  है? 
फटे जूते के दिल में ठाकुर जी से ज्यादा इज्जत किसी और के लिए ही होगा। शायद उसके लिए जिसके दिल में जीव-निर्जीव, ब्राह्मण-चमार सब के लिए बराबर ही जगह थी। 

बाबू जी के फटे जूते जो हाड़ गला देने वाली सर्दी में, जेठ की दोपहरी में और सावन के कीचड़ और मिट्टी के रेलम-पेल में हमेशा उनके साथ बड़ी शिद्द्त से चिपका होता था। नमकहलाली, वफ़ा और कमिटमेंट का पाठ बाबू जी के फटे जूते से बेहतर और कौन सिखा सकता था। 

Wednesday, March 20, 2013





उस दिन अरसे बाद जो तू मिली
रिश्तों पर जमी धूल को
आँखों से फूँक फूँक कर
हटा रहा था मैं

आँखों से गर्म लावा सा बहता रहा
मानों वर्षों से फफोले पड़े हों आँखों में

तेरा वो आख़िरी सवाल
जिसे मैं हँस कर टाल गया था
वहीं अटका हूँ अब तक 

ज़िंदगी के शहर में
तुम्हारा जो मकान था
क्या तुम अब भी उसे किराये पर देते हो ?

Sunday, February 17, 2013

अंतिम कविता





जब ज़िंदगी की बची खुची साँसें मैं गिन रहा होऊंगा 
मेरी मुर्छित ज़िंदगी जब सूख रही होंगी 
आँखें शून्य में पथराई मालूम पड़ेंगी 
हड्डियाँ शरीर के उभारों को परिभाषित करेंगी 
तो तू किसी मंदिर में जा कर मेरे लिए दुआ ना करना प्रिये, 
यूँ ही किसी मयख़ाने में जोर-जोर से मेरी यह अंतिम कविता दोहराना 
शायद मैं फिर से जी लूँगा 
क्यूँ कि,कविताएँ इस शरीर का ईंधन है 

दर्द के उन अंतिम क्षणों में
मैं दो प्रेमियों की परिभाषा लिख रहा होऊंगा 

दर्द और मौत दो प्रेमी हैं 
जो शापित हैं आजीवन कभी ना मिलने को,
दर्द ही मौत है 
और मौत ही दर्द 
दो प्रेमियों की भाँति-एक दूसरे के  प्रतिबिंब 
और पूरक भी।