Sunday, February 17, 2013

अंतिम कविता





जब ज़िंदगी की बची खुची साँसें मैं गिन रहा होऊंगा 
मेरी मुर्छित ज़िंदगी जब सूख रही होंगी 
आँखें शून्य में पथराई मालूम पड़ेंगी 
हड्डियाँ शरीर के उभारों को परिभाषित करेंगी 
तो तू किसी मंदिर में जा कर मेरे लिए दुआ ना करना प्रिये, 
यूँ ही किसी मयख़ाने में जोर-जोर से मेरी यह अंतिम कविता दोहराना 
शायद मैं फिर से जी लूँगा 
क्यूँ कि,कविताएँ इस शरीर का ईंधन है 

दर्द के उन अंतिम क्षणों में
मैं दो प्रेमियों की परिभाषा लिख रहा होऊंगा 

दर्द और मौत दो प्रेमी हैं 
जो शापित हैं आजीवन कभी ना मिलने को,
दर्द ही मौत है 
और मौत ही दर्द 
दो प्रेमियों की भाँति-एक दूसरे के  प्रतिबिंब 
और पूरक भी।