Wednesday, July 24, 2013

बाबू जी के फटे जूते

                                           

कल शाम दोस्तों के बीच नये जूते खरीदने की बात हो रही थी तो फटे जूतों का वह जोड़ा साहसा मस्तिष्क-पटल पर छा गया । 

बाबू जी और फटे जूते के रिश्तों में जब कभी भी दरारें बढ़ जाती तो बूढ़े नीम की छाँव में रोज बैठने वाला "हरसू चमार " उसे रेशम के धागों और महीन कीलों से ठोक पीट कर मजबूत कर देता। हरसू अपनी इस कारीगरी के बदले कभी एक चवन्नी भी नही लेता। बदले में शाम को बाबू जी के साथ चिलम पीया करता। बीड़ी और चिलम की एक-एक कश उन तमाम बुद्धिजीवों को मुह चिढाता था जो घंटों साँस खपा कर Secularism और Communalism पर बहस करते। पाँच दस मिनट के उस चिलम बैठक में ही बाबू जी जात-पात, ऊँच-नीच आदि के बंधनों को जला कर खुद में फूँक लेते थे। 
इन सब के बीच वह फटा जूता मुँह फाड़े सब कुछ देख रहा होता। वह शायद इसी उधेड़ बून में रहता होगा की सुबह ठाकुर जी के मंदिर में हवन के समय मालिक ने उसे उतार क्यूँ दिया था। क्या लकड़ियों का हवन इंसानों के हवन से ज्यादा महत्वपूर्ण  है? 
फटे जूते के दिल में ठाकुर जी से ज्यादा इज्जत किसी और के लिए ही होगा। शायद उसके लिए जिसके दिल में जीव-निर्जीव, ब्राह्मण-चमार सब के लिए बराबर ही जगह थी। 

बाबू जी के फटे जूते जो हाड़ गला देने वाली सर्दी में, जेठ की दोपहरी में और सावन के कीचड़ और मिट्टी के रेलम-पेल में हमेशा उनके साथ बड़ी शिद्द्त से चिपका होता था। नमकहलाली, वफ़ा और कमिटमेंट का पाठ बाबू जी के फटे जूते से बेहतर और कौन सिखा सकता था। 

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