Sunday, August 24, 2014

दादा जी और मेरा कमरा


मेरे कमरे कि खिड़की पूरब की ओर खुलती है। जो आकाश के एक कोने को एकटक निहारता है। मानो आँखें शून्य में पथराई हों। खिड़की के लोहे पर गहरे भूरे रंग की जंग लगी है। जिसे मैं गाहे-बगाहे सैंड पेपर से खुरच आता हूँ। कमरे की छत और दीवारों पर घनी जालें लग आयी हैं। जैसे कि बूढ़े के कंठ में मोटा कफ भर आया हो। पर वो इक्का दुक्का भी खाँसता नहीं है। हाँ, एक पुराना पंखा है, छत से लगा घरघराता रहता है- ऐसे जैसे साँसों से दम फूल रहा हो।
या फिर यों कह लें.… जालें जैसे बड़े पुराने बाल हों। जटाएँ लग आई हैं जैसे सालों से किसी ने केश में तेल ना डाला हो।
दीवार से लटका एक ऊँघता सा लैंप है। जब साँझ ढले मैं कमरे में घुसता हूँ और स्विच को उँगलियों से टटोलता हूँ तो लैम्प आँखें खोल देता है। उसकी रौशनी बड़ी बुझी बुझी सी लगती है।
कमरे का आलमीरा महीनों से बंद पड़ा है। आज जब खोल कर देखा तो धूल खाती कई किताबें थी उसमे। गुमशुम पड़ी ये किताबें अब कभी नहीं बोलतीं। ताखों के बीच में फंसी किताबों के कोने मुड़ चुके हैं, मानो मुँह में लकवा मार गया हो।
आलमीरे के ताख़ पर पुराना अचार का डब्बा रखा है जिसमे फफूंदें लगी हैं। साथ में शीशे के एक जार में आँवले का मुरब्बा पड़ा है। जार का ढ़क्कन बड़ा ढीला सा है। मुरब्बे को चीटियाँ और मख्खियाँ काट खाती हैं, मेरे दादा जी के घाव से रिस रहे मवाद के ज़ानिब।
मेज पर एक गुलदान पड़ा है। उसमे जो फूल खोंस दिए थे किसी ने वो मुरझा रहा है। एक ईंक कि डिबिया भी रखी है। जिसमे रखा दवात फट गया है। काग़ज पर लिखो तो पानी के माफिक फैल जाता है।

ओह ये दर्द ! कि मेरा कमरा बूढ़ा हो चुका है। ये मुझसे अब बातें नहीं करता। इस बड़ी सी बिल्डिंग में ये बूढ़ा कमरा हमेशा आँख बंद कर लेटा रहता है।

माँ के लिए

माँ कद काठी में औसत ही थी। गाँव के पंचायत भवन के नलके से जब भी वो पानी लाने जाती तो मैं आँचल का खूँट पकड़ पीछे पीछे हो लेता। दस-एक बार तो ऐसा भी हुआ कि आते हुए मैं गिर पड़ता, फिर माँ एक हाथ से मुझे और दूसरे से मटके को उठा लेती। उन्हें ऐसा करते हुए तनिक भी दुःख ना होता। मेरी नजरों में वो दुःख है अथाह दुःख ! पर वो माँ कि आँखों में कभी नहीं दिखता। वो जब भी मुझे गोद में और सिर पे मटका लिए आ रही होती तो उनकी आँखों में प्रेम और सौंदर्य का एक अदभुत मिश्रण दिखता। कभी कभी सोचता हूँ कि एक समय ऐसा भी होगा जब घड़े जितने भारी कोख़ में मुझे लिए वो उसी पंचायत भवन से मटके में पानी भर लाती होंगी। आह! मैं अपनी पौरुषता और खून का एक एक क़तरा झोंक दूँ तो भी वो ताक़त नहीं ला सकता कि तुझे गर्भ में रख नौ महीने तक पंचायत भवन से रोज पानी भर लाऊँ।
माँ जब चिता पर लेटी थीं तो कंधे पर घड़ा लिए कुल नौ डग में ही मैंने परिक्रमा पूरी कर ली। वो घड़ा श्मसान में ही छोड़ आया। उस लोक में भी माँ चैन से नहीं बैठी होंगी। रोज घड़े में पानी भर लाती होंगी ताकि मृत्यु कि प्यास बुझा सके।
देर-सबेर मौत कि चौखट लाँघ जब मैं उस लोक आऊँगा और जिंदगी का बँटवारा जब फिर से हो रहा होगा तो ब्रह्म से मेरी सिर्फ एक प्रार्थना होगी.... "किसी जन्म में मैं अपनी माँ का माँ बन सकूँ ताकि एक बार वो सुख मैं भी अनुभव कर सकूँ जो कभी माँ के चेहरे पर दिखता था"।

पिता के लिए



अर्थी पर पड़े बाबू जी ठंडे थे बिल्कुल बर्फ की माफ़िक। कभी उन्हें सर्दी से काँपते नहीं देखा था मानों सारी उम्र मौत ढूंढ रहे हों ताकि जिंदगी को कुछ ठंडक मिले। 
बाबू जी से खुल कर बात ना कर पाना मेरी सबसे बड़ी कमजोरी थी। वो रात को वापस लौटते तो मुँह से शराब की बू आती। नशें में पिता जी वैसे नहीं होते जैसे मौत से कुछ बरस पहले थे। अंतिम सालों में ठेके तक जाने की ताकत बची नहीं सो शराब छूट गया। नशें में वो ढ़ेर सारी बातें करते। जिंदगी के कई बड़े फ़लसफ़े यूँ ही सिगरेट के धुएँ के साथ मेरी कानों पर दे मारते। उनकी बातें दिमाग के किसी कोनें में अनसुलझी सी क़ैद हो जाती। बातों बातों में एक दिन कह गए कि "जिंदगी एक लत है और शराब की तरह कड़वी भी " । ऐसी कई पंक्तियाँ स्मृतियों में कैद हैं जो अब समझ में आती हैं।
माँ बाबू जी से घृणा करतीं या शराब से ये मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ। बस इतना जान पाया हूँ कि जो मैं आज हूँ वो उसी शराब की पैदाइश हूँ। माँ की घृणा कभी गोली सा छेद ना कर पायी। वो बस बरसाती घाव सा निशान देकर चले जाते। समय के साथ वो निशान मिट गए पर बाबू जी की बातें अब भी याद आती हैं, गोली लगे हुए गहरे घाव की तरह कभी ना मिटने वाले।
माँ जब भी रोती तो मैं बोल पड़ता। बातों बातों में आँसू सोख जाने का हुनर वहीँ से सीखा है।
"माँ को समझाना बेहद आसान होता है पर उतना ही कठिन होता है पिता को समझना " ।