Monday, October 29, 2012

आम आदमी और आम चुनाव


                                                      


कहानी आज से  कुछ  पुरानी है पर हालात  अब भी कमोबेश वही है |

आज कलुआ बहुत खुश है | हरसन को वो समझा रहा है "याद है हरसन ५ साल पहले कितने छोटे थे हम, जब यहाँ  हेलीकाप्टर आया था  "
"हाँ याद है, सबसे पीछे थे हम और ठीक से देख भी नहीं पाए थे, 
और नाश्ता का पैकेट तो अगली पंक्ति में ही समाप्त हो गया था | पर इस बार हम सबसे आगे होंगे |
हम भी बड़े हो चुके हैं |"

आज क़लुआ और हरसन स्कूल को चले तो थे पर वहां न जाने का पूरा मन बना लिया था | ५ साल पूरे हो चुके हैं पिछले चुनाव के और एक बार फिर समय आ चुका है की हमारे नेता हमारे घर तक आयेंगे | आज कलुआ और हरसन की आँखों में एक  अलग ही चमक थी | आज उन्हें फिर से  शहरी उड़न - तस्तरी को देखने का मौका मिलेगा | चुनाव और वोट के मायने उन्हें नही मालूम थे, पर वो ये जान चुके थे की ५ सालों में १ बार उन्हें उस सुन्दर उड़न-परी के दर्शन उन्हें जरूर होंगे |

विस्मित आँखें आसमान टटोल रही हैं | दूर लगे पंडाल के पास उन्हें जाने की हिम्मत नहीं होती | खाकी वर्दी वाले उनकी पहरेदारी में पहले से ही हैं | पंडाल के पीछे खान पकवान का भी बंदोबस्त है | गुलाब जामुन की महक उनके शरीर में फैली जा रही है | इन्द्रियों की विवशता ने मस्तिष्क को सुझाव भेजने शुरू कर दिए थे | अगले ही पल हरसन बोल पड़ा "अरे कलुआ चल ना पीछे की तरफ से चलते हैं " | हरसन का सुझाव सुन कर कलुआ जमीन से ढाई फीट ऊपर उछल गया | 

वो दोनों अब पंडाल के पीछे से मौका ताड़ रहे थे | आज उनकी स्थिति बड़ी अजीब थी | सामने कुछ कुत्ते भी मंडरा रहे थे | आज उन्हें भी चूसी हुई हड्डियों और जूठे मछलियों की दावत मिलने वाली थी | दोनों की आँखों में बराबर चमक है | मानव के पूर्वज बन्दर थे, यहाँ आँखों की चमक ये सिद्ध कर रही थी की बंदरों के पूर्वज कुत्ते थे | नर और वानर के बाहरी आकार प्रकार बेहद मिलते हैं , पर आज मानवों की मानसिकता कुत्तों से काफी मिलती नजर आ रही थी | काफी देर तक अवलोकन के बाद ये नर- पशु समुच्य  इस निष्कर्ष पर पंहुचे की ये जगह उच्च कोटि के पशुओं के दावत के लिए है |  उनका वहां पहुंचना बड़ा मुश्किल जान पड़ता था | 
तभी गर्र-गर्र की आवाज से आसमान गूंजने लगा | दूर आसमान में वो उड़न -परी मंडरा रही थी | कलुआ और हरसन सब भूल कर एकटक आसमान में देखने लगे | कुछ पल के लिए  पशु वर्ग भी अपनी प्राथमिक  जरूरत भूल कर आसमान निहारने लगे | आस पास के दो - तीन कोस तक के लोग उन्हें देख रहे होंगे | 

दूर खेतों में कलुआ के माँ और बापू धान बो रहे हैं | 
"अरे सुनते हो कलुआ के बापू .... ऊपर देखो ऊपर ... हेलीकाप्टर जा रहा है | "
हाँ बापू  कितना सुन्दर है - कीचड़ में सनी हुई रनियां भी ताली मारते हुए चिल्लाने लगी | रनियां कलुआ की छोटी बहन है |
" अरे काम पर ध्यान दो कलुआ की माई | वो अपना पेट भरने में मगन हैं, तू भी अपने पेट की चिंता कर" | वो प्रौढ़ आँखें दो पल के लिए ऊपर उठी और फिर बड़े ध्यान से बोआई में जुट गयी | 

कलुआ के बापू  के लिए ये बातें कोई मायने नहीं रखती हैं | वर्षों से चले आ रहे परंपरा को वो शायद अच्छी तरह से जानता है | वो गरीब है पर स्वाभिमानी है | वो जानता है की आसमान सिर्फ उड़ने वाले जीवों के लिए है | उन जैसे सत्तर करोड़ लोगों की जगह यही कीचड़ है | कीचड़ में धंसे पैर को वह बाहर निकालने की कोशिश तो  करता है पर वह जानता है की अगला कदम उसे फिर कीचड़ में ही  डालना है | अभी तो सूरज चढ़ा ही है  | उसे शाम तक काम करना है | ये बीज कोई मंगनी थोड़ी ना आयी थी | जोड़े भर बैल गिरवी रखने पड़े थे तब जा कर आया था बीज का पैसा | बिना बैल के किसान तो अपंग ही हो जाये | बैल खोलते हुए कलुआ के माई की रोती हुई सूरत अब भी उसे याद है | उसके हाथों की गति और तेज हो गयी थी | "वो इस बार ज्यादा मेहनत करेगा, खूब सारे धान होने पर वो गिरवी के बैल वापस लायेगा | कलुआ के माई को खुश देख कर वो भी मुस्करायेगा "|  मस्तिष्क में सपने बुनते हुए हाथें लगातार अपने काम में जुटी हैं | भूख प्यास की उसे खबर नही है | वो खुश है अपने सपनों में | 

दूर कहीं हेलिकॉप्टर उतरा था | नेता बाबू उतरने वाले थे | वातावरण में धूल और पत्ते सने हुए थे | लोगों की भीड़ भागी चली आ रही थी | वो भीड़ जिन्हें इन बड़े बाबुओं और भाषणों से कोई मतलब नही था | वो तो देखने आये थे तो बस वो उड़न खटोला | वो उसे देखना चाहते थे, छूना चाहते थे , सपनों की दुनियां में बातें करें तो वो उसमे उड़ना भी चाहते थे |
भीड़ बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थी | इस भाग-दौड़ में क्या बूढ़े, क्या नौजवान और क्या बच्चे ! सबकी एक ही चाहत- हर कोई पहले पहुंचना चाहता था उसके करीब | 

इसी भाग-दौड़ में कलुआ का पाँव किसी गढ्ढे में  पड़ गया |
"आह रे माई मर गए- हरसन रुको " .....कोलाहल के बीच कलुआ की दर्द भरी आवाज गूंजी | पर हरसन के अलावा उसे कोई न सुन सका, मानवों का वास्तविक चेहरा अभी साफ दिख रहा था | निष्ठ्ठुर, निर्लज्ज - बिल्कुल मगन अपनी खुशियों के लिए | हरसन वापस आ चुका था | उसे कलुआ की फिकर थी |
हरसन ने कलुआ को दोनों हाथों से उठाने की कोशिश की पर कलुआ चलने की हालत में नहीं था | चेहरा पूरा लाल था | असहनीय दर्द से वो बिलबिला रहा था | आँखों से आँसू तो रुकने का नाम ही नही ले रहे  थे | हरसन भी घबराहट में कलुआ को पकड़ कर रोने लगा | हरसन की अश्रुपूर्ण आँखें हर तरफ सहायता के लिए चीख रही थी | 
 भीड़ से किसी का ध्यान उनकी ओर गया | अब कुछ लोग इकठ्ठे हो गये थे |
" शायद हड्डी टूट गयी है "- किसी ने अंदाजा लगाया | अंदाजा सही था | कलुआ का पाँव अब तक पूए  की तरह  फुल चुका था | उसके आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा था | हेलिकॉप्टर की आवाज और गुलाब जामुन की खुशबू अब उसके लिए महत्वहीन थे | उसे भी याद आ रहा था अपने माई का वो रोता हुआ चेहरा | इलाज का खर्चा कहाँ से आएगा इस बात की चिंता उसे भी सता रही थी | अब यह दर्द पाँव के दर्द से कहीं अधिक असहनीय था | वो यूँ ही बेहोशी की हालत में हरसन की गोद में पड़ा कुछ बड़बड़ा  रहा था | 

दूर नेता बाबू भाषण दे रहे थे | अगले पांच साल के लिए योजनाओं  का पहाड़ खड़ा किया जा रहा था | एक पंक्ति साफ सुनाई दे रही थी - "बहनों एवं भाइयों मैं आपका दर्द समझ सकता हूँ " | पता नही कितने लोग अभी कलुआ के दर्द को समझ पा रहे थे |




Friday, October 5, 2012

कुछ बात अभी भी बाँकी है


                                              "ढह गया वह तो जुटा कर ईट पत्थर कंकरों को 
                                                          एक अपनी शांति कि कुटिया बनाना कब मना है
                                                          है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है " 
                                                                                                       हरिवंश राय बच्चन 


  
                                                                                                                                        
                                                                                                                        




देश कि वर्तमान राजनैतिक स्थितियों से आहत और निराश जन्मान्यों को समर्पित अपनी कुछ पंक्तियाँ  !!!!


                                                               कुछ बात अभी भी बाँकी है 

कुछ बात अभी भी बाँकी है..... शुरुआत  अभी  भी बाँकी  है... 
टूटे शब्दों में कहो न ये कि  रात अभी भी बाँकी  है

बिक गए ख़ाक के मोल कई  ईमान यहाँ दुकानों  में, 
अपनी ही माँ के रक्त भरे, पी गए यहाँ   पैमानों में 
पर अपनी पौरुश्ता भूल चुके,  भटके  ओ उद्दंड  पुरुष... आ तुझको ये बतला दूँ कि 
सिक्कों में न तौल सको, वो जात अभी भी बाकी है

क्या हुआ कि कल कुछ बिगड़ गया ?
अपना घर भी कुछ उजड़ गया  
 पलकों में बांधे कुछ सपने थे ....
 उन में एक-आध बिछड़ गया 
कुछ कायरता के पुतलों से 
अपना भी पाला पड़ गया .... 
पर पौआ पिए डगमग डगमग चलते ओ उद्दंड पुरुष.... आ तुझको  ये बतला दूँ कि
 चरणों  में शीश चढ़ा दे जो , वो  जज्बात अभी भी बाकी है 

कुछ उनकी चालाकी थी, कुछ मेरी भी नादानी थी 
जो फँसे थे उन बातों में वो बात बड़ी बेमानी थी 
फिर मिलना है कल उनसे कि 
कुछ सवालात अभी भी बाकी है
मेरी मानो ओ उद्दंड पुरुष 
मानवता के अखाड़ों में, दो दो हाथ अभी भी बाकी है  

पर मत कहना मुझसे ये कि रात अभी भी बाकी है....
 मैं कहता तुझसे ओ उद्दंड पुरुष कि....
 मुरझाई पलकों में, विश्वास अभी भी बाकी है 
उलटी धारा खेने वाले कुछ युवकों का साथ अभी भी बाकी है 
मत हो निराश ओ भटके ज्ञानी. 
 यह कालिमा कुछ  पल का है, प्रभात अभी भी बाकी है ....