Monday, November 26, 2012

डायरी के पन्नों से....



                                                    

शाम के पाँच बजे जब आँख खुली तो लड़के ने ख़ुद  को अकेला ही पाया। सूरज  की अंतिम किरणे खिड़की के कोने से झाँक रही हैं । कमरे  के एक कोने में माँ बाबू जी की तस्वीर लटक रही हैं , जिस पर  धूल की परतें तह बनाये हुए हैं । मेज पर किताबें बिखरी पड़ी हैं ।  खुली हुई डायरी के कुछ पन्ने पंखे की हवा में बार बार पलट जा रहे हैं , मानो वर्तमान के नीरस क्षणों को पीछे खींचना चाहते हों। रात भर लड़के ने खुद में जिन्दगी खींचने की असफल सी कोशिश की पर पता नहीं कब आँख लग गयी। सिगरेट का अधजला  टुकड़ा अब भी मेज के किनारे पड़ा हुआ था,,,, बुझा हुआ सा - बिल्कुल शांत,,,,,, मानो उस टुकड़े की जिन्दगी भी लड़के की जिन्दगी से जुड़ा हुआ हो।
 सर अब भी दर्द से चक्कर खा रहा है। 
डायरी के पन्नों ने आखिरकार लड़के को खींच ही लिया अपनी तरफ। उँगलियों ने पन्ने पलटने शुरू किये- धीरे धीरे व्यस्क आँखों का वो भोलापन लौटता गया। उंगलियाँ मासूम होती गईं  और बचपन की निश्छल हंसी वातावरण में फिर से गूंजने लगी। 

"कल शाम मैं और बाबू जी आम के बगीचे में बैठे हुए थे। हमेशा की तरह बाबू जी ने ढेर सारे पके आम सामने रख दिए। मैं सब कुछ भूल आमों के पीछे पड़ गया। आम की मिठास और बाबू जी का प्यार अपना एक अलग ही धुन तैयार करते थे। मैं उन मिठास में खो सा जाता था, उस गोद में खुद को भूल जाता था। आम खाते-खाते मैंने अचानक से चेहरा ऊपर उठाया। मेरी आँखों से खिन्नता साफ़ झलक रही थी। मैंने आधे खाये हुए आम बगल में सरका दिये और दूर जाकर उंगलियाँ साफ़ कर वहीँ बैठ गया।बचपन से ही बाबू जी में एक आदत मैंने देखी थी। मुझे खुश करने के बाद खुद को बीड़ी की कशों से खुश करते थे। यूँ तो बाबू जी की वजह से धुंए के उन छल्लों में भी एक अपनापन सा दिखता था पर बाल मन उस महक को बर्दाश्त नहीं कर पाता था।  बाबू जी मेरे मन को पढना जानते थे। मेरी स्थिति भांप कर बीड़ी के अधजले टुकड़े को फेंक दिया। फिर बगीचे के कोने वाले चिनिया आम से चार पांच पके आम तोड़ लाये। मुझे गोद में ले कर सारा आम मुझे दे दिया। फिर आँखों में आँखें डाल एक प्रश्न दाग दिया- मेरी बीड़ी की महक बहुत बुरी लगती है? 7 साल के उस बालक ने आँखों में अतिरेक मासूमियत भरते हुए हाँ में सर हिलाया। बाबू जी ने मुझे गले से लगा लिया और धीरे से मेरी कानों में आकर कह दिया " आज से बीड़ी से तौबा, कसम जो हाथ भी लगायी आज के बाद "। मेरे चेहरे पर मुस्कराहट तैर रही थी। गोद की पकड़ और मजबूत होती जा रही थी। मानो बिना बोले ही सारा प्यार उड़ेल देना चाहते हों।"

शाम का वो एहसास लड़के की जेहन में लौट रहा था। परत दर परत जिन्दगी के सारे पन्ने आँखों के सामने से गुजर रहे थे।
जिन्दगी ने बड़ा ही  अजीब मोड़ ले लिया। आँखों की नादानी और चेहरे की वो सच्चाई पता नही कब धुंधली पड़ गई । आम की मिठास और प्यार की गर्मी बहुत पीछे छूट गया। उम्र के पेड़ से मासूमियत के पत्ते किस पतझड़ में गिर गए पता ही नही चला। हम बढ़ते रह गए, सब कुछ  बदल गया। 
पर बचपन अब भी दूर कोने में बैठा ललचाता है। मानो ये एहसास दिलाता है की एक बच्चा है तुम्हारे अन्दर जो अब भी जिन्दा है- उसे मत मरने दो। सपनो के बोझ से पलकें भारी मत करो, कुछ मासूमियत बह जाने दो। वर्षों से जमी बर्फ पिघल जाने दो कभी कभी। 

लड़का उठता है, अकेला ही  चल पड़ता है कॉलेज की दूसरी छोड़ की तरफ। पाँव कभी कभी लड़खड़ाते हैं जैसे रात का हैंगओवर नही उतरा हो अब तक। तारे आसमान पर आ चुके हैं। पूरब से हवा का एक झोंका छू कर निकल जाता है। लड़का कुछ देर यूँ ही खुली हवा में सांस लेने की कोशिश करता है। पर पता नही क्यूँ एक बेचैनी सी महसूस होती है। दूर दूर तक कोई साथी नजर नही आता। 
          कदम फिर से पीछे मुड़  पड़ते हैं। जेब से पाँच का एक नोट और एक रूपये का एक सिक्का निकलता है। जिन्दगी फिर से जल चुकी है और एक एक कश के साथ जिन्दगी खुद में फूंकने की कोशिश शुरू हो चुकी है। धुंए के छल्लों में अब और भी अपनापन दिखने लगा है।




2 comments:

  1. bahut khoob ..... apni hi zindagi se rubaru ho gaye..:)

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  2. waah bhai...........jivan ki sacchai yahi hai....bachpan ki yaadein kabhi peecha nahi chodtii :)

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