Sunday, August 24, 2014

पिता के लिए



अर्थी पर पड़े बाबू जी ठंडे थे बिल्कुल बर्फ की माफ़िक। कभी उन्हें सर्दी से काँपते नहीं देखा था मानों सारी उम्र मौत ढूंढ रहे हों ताकि जिंदगी को कुछ ठंडक मिले। 
बाबू जी से खुल कर बात ना कर पाना मेरी सबसे बड़ी कमजोरी थी। वो रात को वापस लौटते तो मुँह से शराब की बू आती। नशें में पिता जी वैसे नहीं होते जैसे मौत से कुछ बरस पहले थे। अंतिम सालों में ठेके तक जाने की ताकत बची नहीं सो शराब छूट गया। नशें में वो ढ़ेर सारी बातें करते। जिंदगी के कई बड़े फ़लसफ़े यूँ ही सिगरेट के धुएँ के साथ मेरी कानों पर दे मारते। उनकी बातें दिमाग के किसी कोनें में अनसुलझी सी क़ैद हो जाती। बातों बातों में एक दिन कह गए कि "जिंदगी एक लत है और शराब की तरह कड़वी भी " । ऐसी कई पंक्तियाँ स्मृतियों में कैद हैं जो अब समझ में आती हैं।
माँ बाबू जी से घृणा करतीं या शराब से ये मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ। बस इतना जान पाया हूँ कि जो मैं आज हूँ वो उसी शराब की पैदाइश हूँ। माँ की घृणा कभी गोली सा छेद ना कर पायी। वो बस बरसाती घाव सा निशान देकर चले जाते। समय के साथ वो निशान मिट गए पर बाबू जी की बातें अब भी याद आती हैं, गोली लगे हुए गहरे घाव की तरह कभी ना मिटने वाले।
माँ जब भी रोती तो मैं बोल पड़ता। बातों बातों में आँसू सोख जाने का हुनर वहीँ से सीखा है।
"माँ को समझाना बेहद आसान होता है पर उतना ही कठिन होता है पिता को समझना " । 

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