Sunday, August 24, 2014

माँ के लिए

माँ कद काठी में औसत ही थी। गाँव के पंचायत भवन के नलके से जब भी वो पानी लाने जाती तो मैं आँचल का खूँट पकड़ पीछे पीछे हो लेता। दस-एक बार तो ऐसा भी हुआ कि आते हुए मैं गिर पड़ता, फिर माँ एक हाथ से मुझे और दूसरे से मटके को उठा लेती। उन्हें ऐसा करते हुए तनिक भी दुःख ना होता। मेरी नजरों में वो दुःख है अथाह दुःख ! पर वो माँ कि आँखों में कभी नहीं दिखता। वो जब भी मुझे गोद में और सिर पे मटका लिए आ रही होती तो उनकी आँखों में प्रेम और सौंदर्य का एक अदभुत मिश्रण दिखता। कभी कभी सोचता हूँ कि एक समय ऐसा भी होगा जब घड़े जितने भारी कोख़ में मुझे लिए वो उसी पंचायत भवन से मटके में पानी भर लाती होंगी। आह! मैं अपनी पौरुषता और खून का एक एक क़तरा झोंक दूँ तो भी वो ताक़त नहीं ला सकता कि तुझे गर्भ में रख नौ महीने तक पंचायत भवन से रोज पानी भर लाऊँ।
माँ जब चिता पर लेटी थीं तो कंधे पर घड़ा लिए कुल नौ डग में ही मैंने परिक्रमा पूरी कर ली। वो घड़ा श्मसान में ही छोड़ आया। उस लोक में भी माँ चैन से नहीं बैठी होंगी। रोज घड़े में पानी भर लाती होंगी ताकि मृत्यु कि प्यास बुझा सके।
देर-सबेर मौत कि चौखट लाँघ जब मैं उस लोक आऊँगा और जिंदगी का बँटवारा जब फिर से हो रहा होगा तो ब्रह्म से मेरी सिर्फ एक प्रार्थना होगी.... "किसी जन्म में मैं अपनी माँ का माँ बन सकूँ ताकि एक बार वो सुख मैं भी अनुभव कर सकूँ जो कभी माँ के चेहरे पर दिखता था"।

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